सिलसिलाऐ साबिरिया के कबिरुल शान बुज़ुर्ग
शैख़ उल कबीरे आलम हज़रत शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी र.ह (दादा मिँया) 2 सफ़र बरोज़ जुमा 996 हिजरी ब मुताबिक़ 1 जनवरी 1588 ब ज़माना बादशाह अकबर सदरपुर ख़ैराबाद (अवध) मे पैदा हुए थे.
माँ के आगो़श और बाप के साए मे परवरिश पाई आप के नाना का़ज़ी इस्माईल हरगामी अपने वक़्त के बहुत बड़े आलिम थे-
इबतेदाई तालीम अपने वालिद हज़रत शैख मुबारिज़ से हासिल की और दीगर किताबें मुक़ामी उलामाऐ वक़्त से पढ़ीं आप को इल्म हासिल करने का इस क़दर था के आप अपने दो मामू ज़ात भाईयों के साथ लाहोर तशरीफ ले गये- लाहोर उस ज़माने का इस्लामी दारूल उलूम था कामीलीन तफसीर हदीस फिक़ा बकसिरत जमा हो गये थे लाहोर मे मुल्ला अब्दुल सलाम लाहोरी जो उस वक़्त के आलिम थे उन का दर्स जारी था हज़रत शाह मोहिबउल्लाह इलाहाबादी र.ह ने उन की शागिर्दी इख्तेयार की-
सोलवीं सदी के बाद अपनी तसनीफ़ तर्जुमा तुल किताब व शरह फुसुस उल हिकम अरबी व फारसी के बाद अपनी किताब अनफास उल खवास अरबी के देबाचा में खुद शेख़ ने लिखा है के जिस ज़माने में मै लाहोर में था एक मकान किराए पर ले रखा था उस मकान के एक गोशे में एक दीवाना महबूस था एक रोज़ आधी रात को वोह मर गया उस की बीवी ने इस कदर नालह व फरयाद किया के मुझको वहशत ने आ घेरा इस फिक्र में गर्क़ रहा करता था के रूह क्या चीज़ है कहाँ से आई और कहाँ जाये गी-
शैतान मेरे दिल में ख़तरात व वसवास डालता और अकाएद ह्स्बानियाँ को मेरी निगाह में लाता था मै लाहोल पढता ओर अल्लाह से इस्तेआनत चाहता-
अब मै ने तफसीर बेज़ावी शुरू की मेरा कोई भी लम्हा फिक्र से खाली नहीं गुज़रता कभी कुरान के साथ होता तो कभीं नफस व शैतान के साथ होता कभी मोमिन बनता और कभी काफ़िर होता कभी अच्छे ख्यालात होते तो कभी बुरे- इसी कशमकश मै ने दस्तगीरे बे कसा नबी करीम सल्ललाहो अलैहे वसल्लम को आलमे मिसाल में देखा के मुझसे फरमाते हैं के मुहिबउल्लाह जो कुछ तुझे दिया गया है वही हक है जब मै जागा तो अपने को वसावस और ख़तरात से दूर पाया और मुतमईन हो गया-
मै ने एक दूसरा मकान किराये पर लिया- एक रात मै ने ख्वाब में देखा के कोई कह रहा है के हुजुर सरवरे कायनात मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम बाज़ार में जो मेरे मकान के दाहिने जानिब था जलवा अफरोज हैं मै दौड़ा सब से पहले हजरत अली मुर्तजा र.अ की खिदमत में पहोचा उन की कदम बोसी की नबी करीम आगे जा चुके थे मै हुजूर की खिदमत में पहोंचा नबी करीम सल्लाल्ल्हो अलैहे वसल्लम ने पहले से भी ज्यादा मोहब्बत व शफ़क़त से नवाज़ा और फरमाया जाओ तुम मकबूल हो-
इस इरशाद मुबारक के बाद ये मालूम हुआ के तमाम ख़तरात व वसावस दिल से निकल गये और तमाम आलम की हकीकत दिख गयी-
लाहोर में जब उलूम ज़ाहिरी से फरागत हासिल कर ली तो हजरत मियां मीर लाहोरी और नवाब साद उल्लाह खान और शाह मुहीबउल्लाह के दरमियाँन ये कौल व करार पाया था के जो जिस दोलत ज़ाहिरी या बातनी पर पहोंचेगा तो वोह दुसरे को भी पहोंचायेगा-
हजरत मियां मीर लाहोरी दर्जह विलायत को पहोंचे ओर नवाब साद उल्लाह खान तरक्की करते करते दरोगा चरम खाना से वज़िरेआज़म शाहजहाँ हुए बाद तकमील उलूमे ज़ाहिरी के जब मै अपने मकान सदरपुर पहोंचा तो फ़िक्र मआश ने परेशन किया क्यूँ के शादी हो चुकी थी मै ने एक रात हुजूर नबी करीम सल्ललाहो अलैहे वसल्लम को ख्वाब में देखा हुजूर की निगाहे करम मेरी तरफ कम है और इस कम अल्तेफाती का सबब जान कर शदीद रूहानी अज्ज़ियत में मुब्तेला हो गया मै ने चाहा के सेहरा की राह लूँ मगर अल्लाह का मुझ पर करम हुआ मै अपने वतन सदरपुर लौट आया और तिशनीगाने इल्म को पढ़ाने का शुगल इख्तेयार किया मै ने बावजूद त्फ्कीरात के शुगल के पास अनफास और इल्म वहदत जो उस्ताद अव्वल ने तालीम फरमाया था किसी भी हालत में फौत नहीं होने दिया बल्के तरक्की देते रहे और यकीन था के बस मोमिन होने के लिए इतना ही काफी है -
मशाएख तरीकत के वारदात व तजल्लियात जो लोग बयां करते हैं महज़ वाकिया व कहानी है मगर इतना ज़रूर था के उन के अज्कार ने मुझको अरसा दराज़ से हैरान और मुताअज्जुब कर रखा था इसी हालत हैरानी में किसी शख्स ने मुझ से शेखे कूबार हजरत अबूसईद गंगोही के हालात बयाँ किये मुझे इन मालूमात से वलवला व जोश पैदा हुआ के मै कामिलीने वक़्त को अपनी आँखों से देखूं और मूलाकात करूँ.
इसलिए इस हकीकत की सच्चाई की तलाश में घर से निकल पडा जहाँ जहाँ औलिया व कामिलीन के मज़ारात मिलते गये वहाँ वहाँ से फ्यूज़ व बरकात समेटता रहा और जो औलिया कामिलीन हयात में थे उन की खानकाहों में हाज़री देता हुआ दिल्ली पहोंच गया-
दिल्ली में ये वाकिया हुआ के नवाब साद उल्लाह खान वज़ीरेआज़म शाहजहाँ हवादार पर बैठे हुए शाही किले से अपने महल लोट रहे थे और शाह मुहिबउल्लाह भी उसी रास्ते बसूरत फ़िक्र व दरवेशी गुज़र रहे थे चूंकि एक मुद्दत तक एक दुसरे के साथ रह चुका था इसी वजह से शाह मुहिबउल्लाह ने इन को पहचान लिया था उधर नवाब साद उल्लाह खान को भी कुछ शुबा हुआ शाह मुहिबउल्लाह फ़ौरन एक दूकान में दाखिल हो गये नवाब साहब ने चूँकि देख लिया था इस लिये अपने मुलाज़िमों से कहा के उस दरवेश को जो सामने की दूकान में अभी अभी गये हैं अपने हमराह ले आओ- अगर ख़ुशी से न आये तो ज़बरदस्ती लाओ मगर ख़बरदार कोई गुस्ताखी न करना शाह मुहिबउल्लाह ब इसरार महल में तशरीफ़ ले गये तो नवाब साद उल्लाह खान गले से लिपट गये और फ़ौरन हम्माम करवाया और मामूली लिबास उतरवा कर शाहाना लिबास पहनवाया- और एक ख़ास वक़्त में शाहजहाँ बादशाह से अर्ज़ किया के मेरे बड़े भाई मुहिबउल्लाह तशरीफ़ लाये हैं दरअसल वही ओहदा वजारात के लायेक हैं और मुझ को इन की नियाबत में काम करने का हुक्म दिया जाये इंशाल्लाह ऐसी सूरत में अमूरे सल्तनत बहोत खुश अस्लोबी से अंजाम पायें गें -
शाहजहाँ पर नवाब साहब की काबिलियत का सिक्का बैठा ही हुआ था वोह समझ गये की नवाब साहब जिस की इतनी तारीफ़ कर रहे वोह यकीनन अरस्तु व अफलातून से कम न होगा- शाहजहाँ चूँकि इल्म दोस्त था और काबिल लोगों की फ़िक्र में रहता था और क़दर करता था इस लिए शाह मुहिबउल्लाह की तारीफ़ सुन कर मुलाक़ात के लिए बैचैन हो गया फौरन ख़ासा की सवारी भेज कर शाह मुहिबउल्लाह को दरबार में बुलवाया- शाहजहाँ ने चंद ऐसे सवाल पूछे जिस का जवाब बड़े बड़े उलेमाए वक़्त नही दे पाते थे- शाह मुहिबउल्लाह का जवाब सुन कर शाहजहाँ बहोत खुश हुआ और आपकी नूरानी शकल और रौशन सीरत देख कर गरदीदह हो गया और उसी वक़्त वजारत और जागीर तजवीज़ की चूँकि उस वक़्त अकीदत और लिहाज़ से दिल्ली में ये काएदा था के जिस शख्स को कोई खिलअत या मुनसिब दिया जाता था तो वोह सलाम व फातेहा के लिए हजरत क़ुतुबुद्दीन बख्तेयार काकी र.अ के मज़ार पर हाजरी देता था शाह मुहिबउल्लाह को भी एजाज़ी हैसियत से मेहरोली शरीफ जाना पड़ा.जब आप क़ुतुब साहब की मज़ार के पास पहोंचे तो फ़ौज से फरमाया तुम लोग यहीं रुको मैं तनहा पैदल आस्ताने तक जाऊंगा ये कहकर आप तनहा मजारे अक्दस की तरफ रवाना हो गये यहाँ फ़ौज का इंतज़ार करते करते सुबह से शाम और शाम से सुबह हो गयी आजिज़ आ कर फ़ौज के कुछ लोग क़ुतुब साहब की मज़ार पर पहोंचे मुजावरों से मालूम हुआ के कल एक अमीर जादे मज़ार शरीफ पर हाज़िर हुए थे- हाज़री के बाद अपना शाहाना लिबास उतार कर हम लोगों से गजी की तहबन्द ले कर पहना और पहाड़ी की तरफ चले गये तमाम फ़ौज ने पहाड़ी को छान मारा मगर शाह मुहिबउल्लाह र.अ का कोई पता नही मिला जब नवाब साद उल्लाह खान को सारे हालात का पता चला तो बड़े अफ़सोस के साथ फ़रमाया के हमने शाहबाज़ऐ तरिक़त को दुनिया में उलझाना चाहा मगर इस सालिके तरिक़त का क़दम दुनिया में नहीं फस पाया साहेबे मिरातुल असरार अब्दुल रहमान चिश्ती जिनको शाह मुहिबउल्लाह से शरफ मुलाज़मत था- वाकिया यूँ बयान करते हैं के शाह मुहिब उल्लाह हज़रत क़ुतुबउद्दीन बख्तेयार काकी र.अ के मज़ार पर हाज़िर हुए तो आप को एक ग़ैबी आवाज़ सुनाई दी-
ऐ मुहिब उल्लाह अल्लाह ने तुम्हे अमूरे ज़ाहिरी के लिए नहीं पैदा किया है बल्के बातिनी अमूर की वाबस्तगी के लिए पैदा किया है-
आज कल सिलसिलाऐ साबिरिया की गरम बाज़ारी है गंगोह जाओ और अबू सईद गंगोही से मुरीद हो- उधर हज़रत अबू सईद गंगोही को बज़रयऐ विरादात क़ल्बी मुन्कशिफ हुआ के मुहिब उल्लाह को तुम्हारे सुपुर्द किया तुम इन को अल्लाह तक पाहोंचाओ- ये इशारा पाते ही आप मसनद व वज़ारत को छोड़ कर गंगोह रवाना हो गये बहरे ज़क्खार में भी ये वाकिया ऐसे ही लिखा हुआ है जब आप गंगोह शरीफ पहोंचे तो आप के मुर्शिद को आप का आना बज़रयऐ क़शफ़ मालूम हो गया था- खादिमे ख़ास मुजाहिद को हुक्म दे रखा था के दो लोटों में पानी गर्म तैयार रखना और जो हलवा दरवेशो के लिए बनता है ज्यादा कर के बनाए-
दस्तक की आवाज़ सुन कर आप के मुर्शिद बाहर आये और मुलाक़ात की और बादे वजू दरमियान सुन्नत व फ़र्ज़ फ़ाजिर की बैत से मुशर्रफ फरमाया और हलवा हज़िरीन में तकसीम करवाया हज़रत अबू सईद गंगोही ने अपने ख़ास खादिम व मुजाहिद से फरमाया के देखो मुहिब उल्लाह की इस्तेदाद किसी नबी की विलायत से मुनासिबत रखती है ता के इसी के मुताबिक तालीम व तलकीन की जाये- खादिम मुहर्रम इसरार जली व खफ़ी ने शाह मुहिब उल्लाह की तरफ तवज्जोह की तो मालूम हुआ के इस्तेदाद व विलायत मोसवी से मुनासिबत रखती है हज़रत अबू सईद गंगोही ने शाह मुहिब उल्लाह को शुगल नफी व अस्बात व इस्मे ज़ात तसव्वुर शैख़ के साथ हिदायत करके चिल्ले में बैठा दिया- शाह मुहिब उल्लाह को उस चिल्ले में इस कदर सफाई हुई के जो मुकदमात उलूमे ग़ामजा के उन पर लाहल रह गये थे बख़ूबी खुल गये और तजल्लियात मल्कूतिया व ज्ब्रूतिया ज़ाहिर हो गये लेकिन तजल्ली ला कैफ उस चिल्ले में इन को मयस्सर नहीं हुई हालांके शाह मुहिब उल्लाह इस तजल्ली के ख्वाहाँ और जोयाँ थे- अभी कुछ ही दिन हुए थे के हज़रत शाह अबू सईद गंगोही ने आप की रूहानी तरक्कियात को देख कर हुजरे के दरवाजे से आवाज़ दी मुहिब उल्लाह- शाह मुहिब उल्लाह ने कुछ देर बाद मुराकबा शुक्र व फना से कहा मुहिब उल्लाह कहाँ है-
हजरत अबूसईद गंगोही ने फरमाया हुजरे के बाहर आओ तुम को हमने अल्लाह तक पोहंचा दिया है और पूरब की विलायत तुम्हारे सुपुर्द कर दी है दुसरे सलिकीन जो सालों से खानकाह गंगोह में मुक़ीम थे रंजीदह हो कर अर्ज़ किया या हज़रत हम लोग एक अरसा से रियाज़त व मुजाहिदा कर रहें है शाह अबूसईद ने इरशाद फ़रमाया तुम लोगों ने नहीं जाना मुहिब उल्लाह कोन हैं उन की तकमील हो चुकी थी इस्तेदाद पूरी पूरी थी चिराग़ साथ लाये थे मैंने सिर्फ रौशन कर दिया जब शाह मुहिब उल्लाह हुजरे से बाहर आये तो पीरो मुर्शिद ने गले लगाया और बहोत खुश हुए- फ़िर आप को खिर्का पहनाया और अमामा सर पे बांधा और तवज्जोह बातिनी आप की तरफ मरकूज़ करके फ़ातेहा के लिए हाथ उठाया तजल्ली लाकैफ़ ने आप के दिल पर तवज्जोह फ़रमाया यहाँ तक के आप ज़ब्त न कर सके और चीख़ उठे या हज़रत बस कीजिये इस से ज्यादा इस्तेदाद और होसला इस मुशाहेदा का नहीं है फ़िर मुर्शिद ने तवज्जोह फरमाई जिस से सेहत और तम्कीन का मरतबा हासिल हो और आप मगलूब उल हाल नहीं हुए-
24 राबिअव्वल 1031 हिजरी बरोज़ यक्शम्बा को सनद ख़िलफ़त अरबी ज़बान में लिख कर अता की-
दिले मिस्ल आइना साफ़ हो चूका था पीरो मुर्शिद की सोह्बते कीमिया असर से वोह फैज़ हासिल हुआ के सारे शक व शुबहात धुल गये तजकिये नफ़स और तस्फियाए कल्ब इतना हासिल हुआ के हर चीज़ का इल्म सिद्दीक़ीन तक हो जाता था-
गंगोह से शाह मुहिब उल्लाह अपने वतन सदरपुर आये कुछ अरसे सदरपुर में रहे मगर वहां का क़याम आप के फ़क्र के शान के ख़िलाफ़ था इसलिए आज़िम इलाहबाद हुए-
साहेबे मिरातुल इसरार लिखते हैं के जिस वक़्त शाह मुहिब उल्लाह रुदौली शरीफ पहोंचे फ़कीर भी उस जगह मौजूद था अज़ राह दोस्ती फ़कीर की क़याम गाह पर ठेरे शाह मुहिब उल्लाह में निहायत उम्दा खस्लतें देख कर मैं इनका आशिक़ हो गया कुछ रोज़ के बाद हज़रत क़ुतुब अब्दाल शैख़ अब्दुल हक़ र.अ की तरफ से नवाज़िश बशारत पाई- वहां से भी कुतुबे इलाहबाद होने और इलाहबाद जाने की इजाज़त मिली साहेबे मिरातुल असरार फ़रमाते हैं के बिलइत्तेफाक़ राये बाहमी से रुदौली शरीफ से रवाना हो कर अपने घर पहोंचा कुछ रोज़ मोहब्बत वीगान्गी के फ़कीर के घर क़याम फ़रमाया इन दिनों में मीर सय्यद अब्दुल हकीम पटनवीं आप के रफीक़ थे-
साहेबे बैहरे ज़क्खार लिखते है के वहां से चल कर कस्बा मानिकपुर ज़िला पर्तापगढ़ पहोंचे तो मज़ार हज़रत मखदूम शैख़ हुसाम उल हक़ औलिया पर हाज़िर हुए-
शाह जमाल उद्दीन सज्जादानशीन को बा इशारा बातिन मज़ारे अक़दस से इशारा हुआ के शाह मुहिबउल्लाह के अमामा बांधो और दो रूपये बतौरे नज़र पेश करो आप ने उस दस्तार से सर इफ़्तेख़ार को बुलंद किया और मानिकपुर से रवाना हुए-
और तहरीरे शरियत आगाह शाह उबैदउल्लाह सज्जादाह नहुम ये है के बाद ज़ियारत हज़रत मख्दूम मानिकपुरी आप इलाहबाद तशरीफ़ लाये और लबे दरयाए जमुना क़याम फ़रमाया जो इस वक़्त पीरजादों की बाग़ नयी बस्ती के नाम से मशहूर है- इब्तेदाई दिनों में फिक्रो फाक़ा रहा आप ने सब्रो शुक्र से बर्दाश्त किया फिर आप के शोहरत की ख़बर क़ाज़ी सदरुद्दीन अल्मारूफ़ क़ाज़ी घासी इब्ने क़ाज़ी दाऊद किलेदार क़िला अकबरी को पहोंची खल्क़े खुदा तिशनिगाने इल्म व हिदायत सैराब होने लगे- उस जाये क़याम से मुतास्सिल जानिब गोशा दक्खन पूरब जामा मस्जिद अकबरी थी- अब भी उस के कुछ निशान जमुना बिरिज के पूरब जानिब पाया जाता है मस्जिद मजकूर के पूरब जानिब मैदान (परेड) पेश क़िला अकबरी है- मस्जिद मजकूर से मिला हुआ एक अजीमुश्शान मकान क़ाज़ी दाऊद हाकिम शहर का था उस मकान के दखिन जानिब आबे दरिया जमुना र वां था वोह मक़ाम बहोत दिलकश व पुर फिज़ा था मगर जिन्नातों के कब्जों की वजह से क़ाज़ी साहब ने उसको खाली कर दिया था और किले में रहना इख्तेयार कर लिया था- जब क़ाज़ी साहब आप के शागिर्द हुए तो तिशनिगाने इल्म की कसरत हुई क़ाज़ी साहब ने वोह मकान शाह मुहिबउल्लाह इलाहबादी के नज़र कर दिया शाह मुहिबउल्लाह इलाहबादी ने शैख़ मोहम्मदी फ़य्याज़ जो उस वक़्त बहैसियत एक तालिबे इल्म थे बुलाकर इरशाद फ़रमाया के उस मकान के सदर दरवाज़े पर खड़े हो कर कह दो के मकान जब अमीर का था तो तुम काबिज़ थे अब फ़कीर और तालिब खुदा का है छोड़ दो और कहीं और चले जाओ इस पयाम को कहते ही जिन्नातों ने मकान को खाली कर दिया फिर उस मकान में मुसाफ़िर और तालिबे इल्म रहने लगे मगर खुद शाह मुहिब उल्लाह इलाहबादी उस जगह रहते थे जहाँ पहले दिन आकर क़याम किया था उस मकान पर एक फूस का छप्पर था इसमें आप रहते थे और तालिबे इल्म को उलूमे ज़ाहिरी व बातिनी की तालीम दिया करते थे नमाज़ पंजेगाना जुमा इदैन वगैरह जामा मस्जिद अकबरी में अदा फ़रमाते थे बादे विलादत शैख़ ताज उद्दीन आप के घरवाले भी सदरपुर से आ गए और उस मकान के एक हिस्से में रहने लगे और बहोत दिनों तक आप और आप के घर वाले वहीं रहे जब दरयाए जमुना ने उत्तर जानिब बढ़ना शुरू किया ओए उस मकान तक पानी आ गया तो क़ाज़ी दाऊद साहब के बेटे क़ाज़ी घासी साहब ने अपना एक ग़ैरआबाद पक्का मकान मोहल्ला बहादुरगंज में शाह मुहिबउल्लाह इलाहबादी के नज़र कर दिया फ़िर वोह जामा मस्जिद अकबरी 1857 के ग़दर में बागीयों की पनाहगाह के बाईस शहीद हो गयी उस के कुछ निशानात कुबा वगैरह सड़क के किनारे अब भी पाए जाते हैं और मकान भी गिर कर बे निशान हो गया- हज़रत शाह मुहिब उल्लाह इलाहबादी सत्ताईस बरस तीन महीने पंद्रह दिन हिदायते ख़ल्क में मसरूफ रह कर बासठ बरस पांच महीने सात दिन की उम्र में आठवीं रजब बरोज़ जुमा क़रीब गुरूब आफ़ताब 1058 हिजरी 1648 इस्वी बज़माना बादशाह शाहजहाँ बउहद शाहजहाँ में दरुलबका तशरीफ ले गये दुसरे दिन बाद नमाज़े जुमा उस मक़ाम पर जहाँ रोज़े अव्वल आ कर क़याम किया था और जिसे क़यामत तक के लिए पसंद फ़रमाया था तद्फीन हुई जहाँ पर अब पुख्ता चबूतरा मै तावीज़ तुर्बत तामीर किरदा हज़रत क़ाज़ी घासी साहब ख़लीफा अव्वल ज़ियारतगाह व हाजत रवाये खल्क़ मौजूद है चबूतरा खोखला है तुर्बत अन्दरोंन चबूतरा ख़ाम है-