सूफीवाद का इतिहास :
सूफियों ने अपनी प्रेरणा मुख्यतः कुरान और मुहम्मद साहब के जीवन से ली है। यद्यपि हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म, इसाई धर्म, पारसी धर्म मानी धर्म एवं नव्य पलेटो विचारधाराओं ने भी इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है।
मुस्लिम भक्तों में ऐसे कतिपय व्यक्ति थे जिन्होंने तोबा (प्रायश्चित) और तवक्कुल (ईश्वर के प्रति समर्पण) अर्थात सम्पूर्ण कार्य ईश्वर पर छोड़ देना के सिद्धान्तों को महत्व दिया और तपस्या एवं संयम को अपनाया। उन लोगों ने कठोर उपवास किये और शीघ्र ही सन्त और धर्मोपदेशक समझे जाने लगे।
सूफी आन्दोलन को बगदाद के अब्बासियों ने धार्मिक आधार दिया लेकिन सूफीवाद के विकास में ईरान के सन्त बायजीद बुस्तामी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा सर्वप्रथम फना अर्थात अपने को मिटा देने को सूफी दर्शन का आधार बनाया।
हिन्दू धर्म ने भी सूफीवाद पर विशेष प्रभाव डाला है। भारत और ईरान की संस्कृतियों में प्रारम्भिक सम्पर्क स्थापित होने के बाद महान यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने हिन्दू दर्शन के कुछ तत्वों को आत्मसात किया। हिन्दू धर्म ने भी सूफियों के ऊपर बड़ा प्रभाव डाला। वेदान्त के कुछ बौद्ध विचारों ने भी इस्लाम में प्रवेश पा लिया। विद्वानों के बीच सूफी धर्म की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है। कुछ तपस्या की क्रियायें जैसे उपवास, शरीर को कष्ट देना, उदाहरणार्थ चिल्ला माकुस अर्थात अपने पैरों को रस्सी से बांधकर अपने को कुंए में लटका कर इसी स्थिति में चालीस रात तक प्रार्थना करना हिन्दू एवं बौद्ध क्रियाओं से ली गयी प्रतीत होती है।
सूफीवाद के अतीत के इतिहास पर प्रकाश डालने से पता चलता है कि सूफी शब्द सर्वप्रथम अबू कासिम के लिये प्रयोग किया गया किन्तु दसवीं शताब्दी में सूफीवाद के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले हुसैन इब्ने मन्सूर अल हल्लाज थे। हल्लाज मनुष्य एवं ईश्वर के सम्बन्धों को मानवीय आत्मा के दिव्यता का प्रवेश मानते थे।
एक अन्य प्रसिद्ध सूफी जिन्होंने मन्सूर हल्लाज के विचारों को और आगे बढ़ाया वह फरीदुद्दीन अत्तार थे। (1136-1230) यह हल्लाज के वध किये जाने के लगभग 150 वर्ष बाद उत्पन्न हुए थे। कहा जाता है कि अत्तार ने सूफी धर्म पर 114 पुस्तकें लिखीं इन्होंने मुस्लिम सन्तों की जीवनियों को तजकेरातुल औलिया नामक ग्रन्थ में संकलित किया जो कि आरम्भिक सूफीवाद के अध्ययन करने की आरम्भिक पुस्तक समझी जाती है। अत्तार दीर्घकाल तक जीवित रहे। चगेज़ खां के एक सिपाही ने इनका सर काटकर वध कर दिया।
जलालुद्दीन रूमी ने दरवेशों की सिलसिला पद्धति की स्थापना की उनका विश्वास था कि प्रेम ही आध्यात्मिक भावनाओं को शुद्ध करता है, उनका प्रिय मन्दिर, मस्जिद अथवा गिरजा में नहीं रहता अपितु पवित्र हृदय में निवास करता है। रूमी का विश्वास था कि मनुष्य को कुछ बीच की अवस्था से गुजरना पड़ता है जो आत्मा को पूर्णता की स्थिति में पहुंचाने के लिए आवश्यक है। मनुष्य को इसे विकसित करते रहना चाहिये ताकि वह अपनी क्षमताओं को अधिक से अधिक विकसित कर सके।
सूफी मुसलमान थे जो शरह (इस्लाम के विधि विधान) की परिधि में ही अपने क्रिया कलाप को सीमित रखते थे और इसी को मुक्ति का सत्य मार्ग समझते थे फिर भी वे कुरान की शिक्षा को गोपनीय महत्व देते थे और अन्तर के प्रकाश की अनुभूति को रुढ़िवादिता के सिद्धान्तवादी हठधर्मिता के मुकाबले अधिक महत्व देते थे।
युसुफ हुसैन के शब्दों में रुढ़िवादी मुसलमान वाहय आचरणों पर ध्यान देते हैं जब कि सूफी आन्तरिक स्वच्छता के लिए प्रयत्नशील होते है। रुढ़िवादी धार्मिक क्रियाओं का अन्ध अनुसरण अथवा अन्धपालन में विश्वास करते है जबकि सूफी प्रेम को ही ईश्वर तक पहुंचाने का एक मात्र साधन मानते है।
पुरुष सूफियों के समान ही कुछ महत्वपूर्ण स्त्री सूफी भी हुई है।
आरम्भिक सूफियों में राबिया नामक स्त्री सूफी विशेष उल्लेखनीय है। वह बसरा की रहने वाली थी वह तत्व मीमांसक कम और नैतिकतावादी अधिक थीं उनका कहना था "प्रभु के प्रेम ने हमको इतना मगन कर दिया है कि अब अन्य चीजों के प्रति प्रेम अथवा घृणा की भावना मेरे मन में नहीं रह गयी है उसने मानवीय प्रेम का प्रयोग प्रतीक रूप में रहस्यवादियों और उनके दिव्य प्रियतम (भगवान) के बीच के प्रेम को दर्शाने के लिए किया। उनका कथन था कि जिस प्रकार मानव अपने प्रिय से प्रेम करता है उतनी ही गहराई से रहस्यवादी भी अपने दिव्य प्रियतम से प्रेम करता है।"
इस प्रकार राबिया ने दिव्य प्रेम को प्रकट करने के लिए मानवीय प्रेम को प्रतीक रूप में प्रयोग किया।
शेख शहाबुद्दीन सोहरवर्दी और इब्न उल अरबी के द्वारा भी सूफीवाद के सिद्धान्तों की उन्नति हुई। यह दोनों ही दार्शनिक रहस्यवाद के दो विभिन्न सम्प्रदायों से सम्बन्धित है।
सोहरवर्दी परम सत्य को नूर मानते है जबकि इब्न-अल-अरबी विश्वास भक्ति और ध्यान को महत्व प्रदान करते हैं। उनका विश्वास था कि मनुष्य और प्रकृति दो आईने है जिन्हें भगवान ने स्वयं प्रदर्शित किया कि भगवान सृष्टि के प्रत्येक कण में विधमान है।
सूफीवाद के एक अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति अब्दुल करीम अल जीली है जिन्होंने इन्सान-अल-कामिल ग्रन्थ पर टिप्पणी लिखी उनका विश्वास था कि मनुष्य चार स्थितियों से ही गुजर कर पूर्णता प्राप्त करता है वे है भगवान की इच्छा के प्रति पूर्ण समर्पण, अहम भाव का पूर्ण विनाश।
चमत्कारिक शक्ति और दिव्यगुणों का अर्जन और अन्त में दिव्य मनुष्य (इन्साने कामिल) बनकर पूर्ण मुख्य तत्व (ईश्वर) में प्रवेश।
सूफी वाद एवं उसका अर्थ :
सूफी शब्द की व्युत्पत्ति पर विद्वानों ने विभिन्न मत व्यक्त किये हैं किन्तु सभी अनुमान पर आधारित है वस्तुतः सभी अनुमान सूफी सिद्धान्त के किसी न किसी पक्ष पर प्रकाश डालते हैं अस्तु समीचीन होगा कि इन सभी अनुमानित व्युत्पत्तियों परसंक्षेप में विचार कर लें क्योंकि इस प्रकार सूफीवाद के सम्बन्ध में बहुत हद तक सम्यक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे। इन शब्दों का विवेचन नीचे किया जा रहा है।
सूफी शब्द की व्याख्या विद्धानो द्वारा विभिन्न प्रकार से ली गई है सूफी शब्द के उद्भव एवं इसकी व्याख्या को लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक कई कृतियां रची जा चुकी थीं जिनमें विद्वानों ने विभिन्न विचार अभिव्यक्त किये थे जिसका विवरण शेख हिज्वेरी ने अपनी कृति में किया है।
वास्तव में तसव्वुफ अथवा सूफी वाद पर निम्नलिखित शब्दों को सामने रखकर उसके वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है।
1. सोफा : एक प्राचीन कबीले का नाम है जो काबे का खादिम था। खादिमों का यह कबीला संयमी जीवन व्यतीत करने में विश्वास करता था
2. सफा : जिसका अर्थ है पवित्र एवं सफाई जो धर्म का मुख्य अंग है।
3. सफ : वह व्यक्ति जो प्रथम पंक्ति में नमाज़ पढ़ने का प्रयत्न करते है।
4. सोफ : सोफ शब्द का अर्थ है पशमीना अथवा ऊन जिसका बुना वस्त्र सूफी निरन्तर पहना करते थे यह सादगी का प्रतीक माना जाता था।
5. अहलेसुफ्फा : मुहम्मद साहब के समय में कुछ ऐसे व्यक्ति थे जो प्रत्येक समय मस्जिदे नबवी में इबादत किया करते थे यह बड़े संयमी और धर्म परायण होते थे।
6. सोफाना : एक प्रकार का पौधा होता है।
7. सफूतुलकजा : गुद्दी के बाल को कहा जाता है।
8. सिऊसोफिया : यूनानी शब्द है जिसका अर्थ है अल्लाह की हिकमत । इस प्रकार हम देखते हैं कि सूफी शब्द की व्याख्या को लेकर विधवानों में बड़ा मतभेद रहा है।
अबूरेहान अल बेरुनी का मत है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति अरबी से न होकर यूनानी है।
उसने लिखा है
"सूफी शब्द जिसका अर्थ दार्शनिक है क्योंकि यूनानी भाषा में सोफ शब्द का अर्थ है दर्शन।
यही कारण है कि यूनानी में फेलसूफ को फीला सोफा कहते है अर्थात दर्शन के प्रति उत्तर।
चूंकि इस्लाम में एक वर्ग ऐसा था जो इनके मसलक के निकट था इसी कारण इस जमाअत का नाम भी सूफी पड़ गया।"
मौलाना शिब्ली नोमानी ने अपनी पुस्तक अलगजाली मे लिखा है।
"तसव्वुफ का अर्थ सीन से था जो सोफ था जिसका यूनानी भाषा में अर्थ हिकमत है। दूसरी सदी हिजरी में जब यूनानी पुस्तकों का अनुवाद हुआ तो यह शब्द अरबी भाषा में आया। चूंकि सूफी लोगों में हकीमों का अन्दाज पाया जाता है इस कारण लोगों ने इन्हें सनी अर्थात हकीम कहना प्रारम्भ कर दिया और धीरे धीरे सनी से सूफी हो गया।"
कुछ विद्वानों का यह दृष्टिकोण है कि सूफा शब्द सूफ से बना है इस सम्बन्ध में शेख अबुल नस्र सिराज का कथन है कि "सूफी लोग अपने पहनावे के कारण सूफी कहलाए यह इस कारण कि भेड़ों के ऊन के वस्त्र पहनना अम्बिया (पैगम्बर) औलिया एवं फकीरी जोवन व्यतीत करने वालों का विशेष चिन्ह है। इस सम्बन्ध में उन्होंने इब्ने खल्दून के कथन का हवाला भी दिया है। जो निम्न प्रकार है.
"मेरी राय में सूफी सोफ से सम्बन्धित है क्योंकि यह फिरका आम आदमियो से अलग हट कर उच्चकोटि के वस्त्र पहनने के स्थान पर मोटे एवं मामूली ऊनी वस्त्र पहनता रहा है।"
प्रोफेसर ब्राउन ने लिखा है "सूफी सोफ से सम्बन्धित है इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि ईरान में सूफी को पशमीना पोश कहा जाता है।
अरबी शब्द कोष के अनुसार तसव्वुफ का अर्थ है उसने सोफ वस्त्र धारण किया। प्रारम्भ में सूफियों को सोफ पहनने के कारण सूफी कहने लगे जो उचित ही जान पड़ता है किन्तु ऐसा भी नहीं है कि केवल सोफ पहनने से ही सूफी अथवा अल्लाह वाले की पहचान हो सके जैसाकि कशफुल महजूब के लेखक शेख अली हिज्वेरी जिन्हें दातागंज बख्श के नाम से भी जाना जाता है के अनुसार सूफी को आत्मा की शुद्धि चाहिए जो मनुष्य के लिए ईश्वर का उपहार है। सोफ तो चार पैर वाले जानवर का वस्त्र है।
जहां तक प्रोफेसर खलीक अहमद निजामी का प्रश्न है उन्होंने सूफी शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है उनके अनुसार "तसव्वुफ शब्द की उत्पत्ति सोफा से हो सकती है। सोफा एक प्राचीन कबीले का नाम है जो काबे का खादिम था। उन्होंने यह मत भी प्रकट किया है कि तसव्वुफ शब्द की उत्पत्ति सोफाना से भी हो सकती है जो एक प्रकार का पौधा है। इसी प्रकार तसव्वुफ शब्द का सम्बन्ध सिऊ सूफिया से भी हो सकता है। यह एक यूनानी शब्द है जिसका अर्थ है हिकमते इलाही।
शेख अबुन नस्र सिराज ने सूफी शब्द की व्याख्या के सम्बन्ध में लिखा है कि लोगों का यह विचार कि सूफी शब्द बगदाद के लोगों का प्रचलित किया हुआ है त्रुटिपूर्ण है इसलिये कि यह शब्द हसन बसरी के समय में प्रचलित हुआ था जिनका समय खलीफा लोगों का समय था। इसी प्रकार अबू मुहम्मद जाफर पुत्र अहमद पुत्र हुसैन सिराजकारी ने अमीर माविया का एक पत्र नकल किया है जिसे उन्होंने इब्ने उम्मुल हुकम मदीना के गवर्नर के नाम लिखा था।
इस पत्र में कविता की एक पंक्ति थी जिसका अनुवाद निम्नलिखित है।
"तू ऐसे सूफी के समान लगता था जिसके पास पुस्तकें हो जिनमें कुरान की आयते उल्लिखित हो। यदि इस अभिव्यक्ति को यथार्थ मान लिया जाय तो प्रथम सदी हिजरी में ही सूफी शब्द का प्रयोग होना सिद्ध हो जाता है। दातागंज बख्श हिज्वेरी ने सूफी को सोफ से सम्बंधित किया है उनका कथन है "सूफी को इस कारण सूफी कहते है कि वह सोफ अर्थात पशम के कपड़े रखता है।
वास्तविकता यह है कि अनेक विद्वानों ने सूफी शब्द अर्थात तसव्वुफ शब्द को सोफ से सम्बोधित किया है। सोफ अरबी शब्द है जिसका अर्थ है भेड़ और बकरी के बाल अर्थात सोफ वाला, इस कारण सूफी वह है जो ऊनी वस्त्र पहनता है। सोफ को पशम भी कहते है। पशम शब्द से पशमीना शब्द रूप है इसी कारण सूफी को पशमीना पोश कहते हैं। सोफ शब्द से एक बात और स्पष्ट होती है कि वह यह कि चूंकि सोफ अरबी शब्द है इसलिए तसव्वुफ़ शब्द अरबी की उपज है।
वास्तव में पशमीना पहनना सादगी और पवित्रता की पहचान थी। इसी कारण सूफियों ने भी पशमीना पहना। अतः सूफी उसको कहते है जो पशमीना पहनता है। पशमीना विशेष रूप से सूफियों का वस्त्र रहा है जिसे स्वयं मुसलमानों के पैगम्बर मुहम्मद साहब पहनते थे। इस वस्त्र को जुब्बा कहते हैं। खलीफा लोग भी पशमीना पहनते थे जो ऊनी वस्त्र का होता था जिसमें चमड़े एवं दूसरी चीजों के पेबन्द लगे होते थे।
ऐसा अनुमान है कि सूफियों को पशमीना पहनने के कारण ही सूफी शब्द से सम्बोधित किया गया।
जहां तक सूफी शब्द का प्रश्न है यह एक ऐसी पद्धति है जिसके माध्यम से मनुष्य ईश्वर से निकटता प्राप्त करता है तथा अपनी उत्पत्ति के उद्देश्यों की प्राप्ति करता है । कुरान में भी सूफी सिद्धान्तों के प्रति अनेक स्थानों पर संकेत मिलता है।
"व की अन्फोस कुम अफला तबसरुन" अर्थात वह (ईश्वर) तुम्हारे अन्दर मौजूद है तुम उसको क्यों नहीं देखते।
कुरान की इस आयत में सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि ईश्वर अपने बन्दो से निकट है और यह विचारधारा सूफीवाद का प्राण है।
सूफीवाद की व्याख्या खलीफा हजरत अली के कथन से भी होती है। जिसका वर्णन डा. एजाज़ हुसैन ने किया है।
"बन्दों में सबसे ज्यादा परवर दिगार के नज़दीक वही महबूब है जो अपने नफस (वासनाओं) पर गलबा (नियंत्रण) रखता हो जिसने हुज्न (दुख) व अन्दोह (कष्ट) को अपनी शैली, खौफे खुदा को अपना लिबास बना लिया हो। उस शख्स के दिल में हिदायत की शमा रौशन है, वह आने वाले मेहमान (मृत्यु) की जियाफत (मेहमानदारी) की तय्यारी कर रहा है।....वह उस आबे खुशगवार शीरी से सेराब हो गया है कि मारफत के सबब से जिस पर वारिद होने की राह आसान थीं।"
मुसलमानों में साधारणतया माना जाता है कि तसव्वुफ की बुनियाद हजरत अली के हाथों पड़ी। तौहीद (ईश्वर का एकत्व), इबादत (उपासना), तरके दुनिया(विरक्ति), मआरिफत(आध्यात्म) इत्यादि जो तसव्वुफ के तध्य है यह सब के सब किसी न किसी तरह से हजरत अली के खुतबों (संदेश) में मिलते हैं।
दूसरे शब्दों में सूफीवाद आत्मज्ञान का दूसरा नाम है जिसके दर्शन ने एक हजार वर्ष से अधिक समय तक इस्लामी संसार को प्रभावित किया।
सूफीवाद की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इसने कविता को एक नया रंग दिया तथा सूफी कवियों के माध्यम से इश्के हकीकी अर्थात भगवान में सच्ची आस्था एवं उससे प्रेम करने का नवीन ढंग प्राप्त किया।
सूफी की विशेषता एवं आधारभूत सिद्धान्त :
विद्वानों ने सूफी की विशेषता एवं आधारभूत सिद्धान्त पर निम्नलिखित शब्दों में प्रकाश डाला है।
"तसव्वुफ से उस ज्ञान का अभिप्राय है जो सूफियों, वलियों अर्थात सन्तों के हृदय में उस समय प्रकाशित होता है जब किताब (कुरान) एवं सुन्नत पर अमल करने से उसका हृदय निर्मल हो जाता है। बस जो कोई इन दोनों पर अमल करेगा उस पर ऐसा ज्ञान एवं इसरारे हकायक (दैवी रहस्य) प्रकाशित हो जाएगा जिसक वर्णन सम्भव नहीं।
उपर्युक्त विवरणों के आधार पर सूफियों की मुख्य विशेषतायें महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार प्रत्येक सूफी खुदा की खुशनूदी (प्रसार एवं कृपा) चाहता है। सूफी मानव को सदाचार का मार्ग दिखाता है। सूफी को सच्चे अर्थों में दुर्वेश (साधु) होना चाहिए। इस सम्बन्ध में दातागंज बख्श हिज्वेरी का कथन है।
"सूफी फकीर वह है जिसके पास कोई वस्तु न हो न तो सम्मान होने से वह धनवान हो और न तो सामान के अभाव में निर्धन हो।
इसी प्रकार ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया ने बताया कि सूफी तर्के दुनिया करे (संसार से विरक्त हो जाय) तर्के दुनिया से तात्पर्य यह नहीं कि सूफी योगियों एवं सन्यासियों के समान घर छोड़कर जंगल में निकल जाए अपितु तकें दुनिया से अभिप्राय है कि अपने कर्तव्यों का निरासकत भाव से सम्पादन करता रहे। संसार में रहते हुए भी संसार में लिप्त न हो।
सूफियों के सन्दर्भ में रिज़ा शब्द का प्रयोग हुआ है। रिज़ा का शाब्दिक अर्थ है, मर्जी, प्रसन्नता अथवा स्वीकृति । तात्पर्य यह है कि सूफी को जीवन के सुख दुख को खुदा की मर्जी (इच्छा) समझकर सदैव उसकी प्रसन्नता के लिए निर्मल जीवन व्यतीत करना चाहिए। इसी प्रकार सूफी के लिए तकवा (परहेज उन समस्त बातों से जो अधार्मिक) जस्री है। वह खुदा पर ईमान लाए (भगवान में दृढ़ आस्था) समस्त छोटे बड़े गुनाहों से बचे तथा उन चीजों से भी बचे जो चित्र को अल्लाह की ओर से विचलित करती है। सूफियों का एक बड़ा वर्ग वहदतुल वजूद में आस्था रखता है उनके अनुसार संसार में ईश्वर के अतिरिक्त कोई और सत्ता नहीं है और वही प्रत्येक वस्तु में निहित है।
जहां तक समा (कव्वाली) गायन एवं श्रवण का प्रश्न है इसलाम धर्म में गायन धार्मिक दृष्टिकोण से मना है किन्तु अधिकांश सूफी समा का आयोजन करते है और कव्वाली गायन को उपासना का अंग मानते हैं। विशेष रूप से समा का यह आयोजन उर्स के अवसर पर होता है।
इस्लाम धर्म के प्रारम्भिक काल में सूफीवाद अपनी विशुद्ध दशा में था तथा धार्मिक नियमों से अनुबंधित था किन्तु जैसे जैसे समय आगे बढ़ता गया वाहय प्रभावों के कारण उसके स्वरूप में परिवर्तन आता गया। धर्म प्रचार अथवा विजय के परिणामस्वस्प इस्लाम जिन जिन देशों में पहुंचा उन देशों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। भारतीय सूफी दायरों में कव्वाली, सभाओं को सम्भवतः इसीलिए मान्यता मिली क्योंकि इस देश में संगीत उपासना का एक अंग मानते हैं।
इसी प्रकार सूफीवाद पर यूनानी, इसाई, वेदान्त, बौद्ध और ईरानी प्रभाव देखने को मिलता है।
रूढ़ीवादी सूफी विद्वानों के अनुसार सूफीवाद का वास्तविक सम्बन्ध इस्लाम से है और इसकी जड़ कुरान है। उनके विचारों में इसलाम एवं कुरान से अलग हटकर सूफीवाद अपना अस्तित्व खो देता है।
सूफी सिलसिले (परम्पराओं) का इतिहास एवं उनकी विचारधाराओं का भारत में प्रचार एवं प्रसार
सूफी सिलसिलो (परम्पराओं) के अध्ययन से पता चलता है कि सूफियों के इन सिलसिलों की संख्या जिन्होंने संसार के विभिन्न भागों में लोगों को शिक्षा दीक्षा देकर ज्ञान की भव्य ज्योति जलाई सौ से भी अधिक है।
शाह वलीउल्लाह देहलवी ने विभिन्न सिलसिलों (परम्पराओं) के सम्बन्ध में लिखा है कि "कादिरया, नक्शबन्दिया एवं चिश्तिया सिलसिले को भारतवर्ष में अत्यधिक लोक प्रियता एवं प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके साथ ही कादिरया एवं नक्शबन्दिया सिलसिला अरब विशेष रूप से हरमैन (मक्का एवं मदीना) में भी प्रचलित हुआ। सुहरावर्दिया सिलसिला खोरासान, कश्मीर एवं सिन्ध के भागों में प्रचलित है। कुब्रविया तूरान व काश्मीर में और शत्तारिया भारत वर्ष में तथा शाजलिया मिस्र, सूडान एवं मदीना में है।
इन सिलसिलों से सम्बन्धित सूफियों ने यदि एक ओर इस्लामी समाज को पतन की ओर अग्रसर होने से बचाया तो दूसरी ओर वे धर्म प्रचार एवं प्रसार के कार्य के भी अग्रदूत रहे। ख्वाजा अहमद अतालीसवी ने तुर्कों को इस्लाम धर्म की ओर आमत्रित किया इसी प्रकार शेख सादुद्दीन हमवी ने मंगोलों का इस्लाम धर्म की ओर आमंत्रित किया तथा शेख ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने भारत वर्ष में एक धार्मिक और सामाजिक क्रान्ति की नींव रखी।
सन् 1200 से 1500 ई० की अवधि को भारत में सूफी विचारों के प्रसार एवं प्रचार का काल माना जाता है। इस अवधि में कतिपय एसे नये सम्प्रदाय तथा आन्दोलन अस्तित्व में आये जिन्होंने हिन्दू एवं मुसलमानों के बीच में मध्यम मार्ग का निर्माण किया।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यह निर्णय करना सरल नहीं है कि सर्वप्रथम कौन सा सिलसिला अस्तित्व में आया। तसव्वुफ (सूफीवाद) के प्रारम्भिक काल के कुछ महत्वपूर्ण एवं प्रमुख सूफियों का सम्बन्ध इन सिलसिलों से कालान्तर में स्थापित किया गया।
कुछ सिलसिलों के सम्बन्ध में ऐसा भी देखने में आता है कि उनका अस्तित्व मूल पुरुष (सूफ: ) की मृत्यु के पश्चात ही स्पष्ट हुआ जब उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों ने सम्प्रदाय का स्वरूप धारण कर लिया। उदाहरणार्थ शेख अब्दुल कादिर जीलानी के जीवनकाल में ही भारत एवं अरब के अनेक क्षेत्रों में उनके शिष्यों एवं श्रद्धालुओं की संख्या अत्यधिक थी किन्तु उनकी मृत्यु के बाद ही इस शिष्य समुदाय ने अपने को सम्प्रदाय स्प में संगठित कर उसे अपने सूफी पीर के नाम पर अभिहीत किया।
जहां तक भारतवर्ष में इन सिलसिलों के अविर्भाव का प्रश्न है अबुल फज़ल ने आईने अकबरी में चौदह सिलसिलों का वर्णन किया।
किन्तु इस सम्बन्ध में भारत वर्ष में विशेष रूप से १. सिलसिले अर्थात चिश्तिया, सुहरावर्दिया, कादिरया, नक्शबन्दिया, शत्तारिया एवं फिरदौसिया विशेष उल्लेखनीय है।
दो सिलसिले जो सर्वप्रथम भारत भूमि में स्थापित हुए वे चिश्ती और सुहरवर्दी सिलसिला थे। न ही कतिपय अन्य सिलसिले : कादिरी नक्शबन्दी, शत्तारी एवं मदारी भी उत्तर भारत में स्थापित हुए।
सुहरवर्दी सिलसिला सिंध, मुलतान, पंजाब तक ही सीमित था यद्यपि उसके कुछ सन्त दिल्ली और अवध में भी आबाद हो चुके थे।
चिश्ती सिलसिले ने अजमेर और राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल उड़ीसा और दक्षिण के कुछ भागों में अपने को स्थापित किया। चिश्ती सिलसिले की अन्य सिलसिलों की अपेक्षा लोक प्रियता इस कारण थी क्योंकि इस सम्प्रदाय के सन्तों ने जनता के रीति रिवाजों के अनुसार अपने को ढाल लिया था।
चिश्ती सिलसिला :
12वीं शताब्दी में अबू इसहाक शामी चिश्ती जो आध्यात्मिक परम्परा में हज़रत अली के नवे वंशज है इस पद्धति के प्रतिपादक माने जाते हैं। सिलसिले का नाम संस्थापक के नाम पर न पड़कर हेरात के निकट चिश्त नामक एक ग्राम के नाम पर पड़ा जहां पर कुछ समय के लिए ख्वाजा अबू इसहाक का रहना हुआ था।' इसी कारण यह सम्प्रदाय चिश्ती कहा जाता है।
ख्वाजा अबू इसहाक शामी (940 ई०) पहले सूफी बुजुर्ग हैं जिनके नाम के साथ उनके विवरण में चिश्ती लिखा हुआ मिलता है खेद का विषय है कि उनके जीवन परिचय के सम्बन्ध में बहुत कम ज्ञात होता है।सिर्रूल औलिया में उनके सम्बन्ध में केवल थोड़ा सा प्रकाश डाला गया कहा जाता है कि ख्वाजा अबू इसहाक शमी, शाम के रहने वाले थे वह अपने जन्मस्थल से चलकर बगदाद आये तथा ख्वाजा मुम्शाद अली दिन्वरी की सेवा में उपस्थित हुए। ख्वाजा दिन्वरी अपने समय के प्रसिद्ध ज्ञानी थे जिनकी सेवा में उनमें आस्था रखने वाले लोग दूर-दूर से आकर उपस्थित होते थे, ख्वाजा मिम्शाद दिन्वरी के सम्बन्ध में ख्वाजा फरीदुद्दीन अत्तार ने तजकिरत औलिया और मौलाना अब्दुर्रहमान जामी नेफहातुल उन्स में लिखा है।
जब ख्वाजा अबू इसहाक ख्वाजा दिन्वरी की खान्काह में उपस्थित हुए तो उन्होंने पूछा "तुम्हारा नाम क्या है " उत्तर दिया अबू इसहाक शामी" इस पर ख्वाजा दिन्वरी ने कहा "आज से लोग तुम्हें अबू इसहाक चिश्ती कहकर पुकारेंगे। चिश्त एवं उसके निकटवर्ती लोग तुमसे सत्य ज्ञान की शिक्षा पायेंगे और वह व्यक्ति जो तुम्हारा मुरीद बनकर तुम्हारे कार्यक्रमों को आगे बढ़ायेगा उसे कयामत तक चिश्ती कहकर पुकारेंगे। 329 हिजरी (940 ई०) में ख्वाजा इस्हाक शामी मिशाद अली दिन्वरी के शिष्य बने।
ख्वाजा दिन्वरी ने उनको सिलसिले के प्रचार के लिये चिश्त रवाना किया। इस सिलसिले के प्रमुख लोगों में ख्वाजा अबी अहमद चिश्ती का वर्णन मौलाना जामी ने किया है। ख्वाजा मुहम्मद चिश्ती उनके पुत्र थे। मौलाना जामी के विवरण के अनुसार दैवी चमत्कार के रूप में सोमनाथ पहुंचकर उन्होंने महमूद गज़नवी की सहायता की थी। ख्वाजा नासिरुद्दीन यूसुफ चिश्ती ख्वाजा मुहम्मद चिश्ती के बहन के सुपुत्र थे। उनसे मिलने के लिए ख्वाजा अब्दुल्लाह अन्सारी चिश्त आये थे। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उन्हीं के सुपुत्र थे। इसी सूफी सिलसिले के लोगों में हाजी शरीफ जिन्दनी विशेष उल्लेखनीय है जिनके खलीफा ख्वाजा उसमान हारूनी थे। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उन्हीं के मुरीद थे जिनसे शिक्षा दीक्षा ग्रहण कर उन्होंने भारत में चिश्ती सिलसिले की नींव डाली।
निम्नलिखित चार सूफी सन्त अबू इस्हाक चिश्ती के आध्यात्मिक वंशज माने जाते हैं।
1. ख्वाजा अबू अहमद यह अबू इसहाक के प्रतिनिधि थे। मृत्यु 965-66 ई० के बाद ।
2. ख्वाजा अबू मुहम्मद यह अबू अहमद के पुत्र एवं उत्तराधिकारी थे। मृत्यु 1020 ई०
3. ख्वाजा अबू यूसुफ यह अबू मुहम्मद के प्रतिनिधि थे। मृत्यु 1067 ई०
4. ख्वाजा मौदूद यह अबू यूसुफ के पुत्र एवं उत्तराधिकारी थे। मृत्यु 1181-82 ई०
ख्वाजा मौदूद चिश्ती के उत्तराधिकार परम्परा में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी जिनका जन्म 1141 ई० में सीज़िस्तान (पूर्वी फारस) में हुआ था उन्होंने भारत वर्ष में 1192 ई० के आसपास चिश्ती सिलसिले की नीव डाली।
ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने अजमेर को अपने सिलसिले का केन्द्र बनाया जहां से उन्होंने धीरे धीरे भारतवर्ष के अन्य भाग में इस सिलसिले को फैलाया। दिल्ली में चिश्तिया सिलसिला बख्तियार काकी, नागौर में हामिदुद्दीन, अजोधन में फरीदुद्दीन, बंगाल मे शेख सिराजुद्दीन तथा दखन में बुरहानुद्दीन गरीब के द्वारा स्थापित किया गया। कुछ समय बाद चिश्तिया सिलसिले के दो उप सिलसिले साबिरया और निज़ामिया स्थापित हुए। चिश्ती सूफियों ने जो लोग मुसलमान नहीं थे उन्हें भी चिश्ती सिलसिले में आमंत्रित किया और उन्हें मुरीद बनाया।
शेख अबू सईद गंगोही ने (1049 हिजरी अर्थात 1639 ई०) साबिरया सिलसिले के प्रचार एवं प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, शेख के सबसे ख्याति प्राप्त खलीफा, शेख मुहिबउल्लाह इलाहाबादी थे। (1058 हिजरी अर्थात 1648 ई०) जो सिलसिले को आगे बढ़ाने में निरन्तर कार्यरत रहे।
जहां तक शेख मुईनुद्दीन चिश्ती के अजमेर आगमन का प्रश्न है विद्वानों में उनके आगमन की तिथि के सम्बन्ध में मतभेद है। प्रोफेसर खलीक अहमद निज़ामी का कथन है कि अजमेर में ख्वाजा का आगमन 1192 ई० में पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में हुआ था और यही कथन यूसुफ हुसैन खां का भी है।
सय्यद अतहर अब्बास रिज़वी के शब्दों में "ख्वाजा का भारत आगमन मुहम्मद गौरी की पृथ्वीराज चौहान पर विजय के कुछ ही समय बाद हुआ था जिसका कारण यह है कि 1192 और 1206 ई० के मध्य का काल इतना अधिक अशान्त एवं अराजकतापूर्ण था कि ऐसे समय 1206 में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का अजमेर आगमन संदेहजनक है।"
सय्यद अतहर अब्बास रिज़वी के शब्दों में "ख्वाजा का भारत आगमन मुहम्मद गौरी की पृथ्वीराज चौहान पर विजय के कुछ ही समय बाद हुआ था जिसका कारण यह है कि 1192 और 1206 ई० के मध्य का काल इतना अधिक अशान्त एवं अराजकतापूर्ण था कि ऐसे समय 1206 में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का अजमेर आगमन संदेहजनक है।"
अकबर शेख मुईनुद्दीन चिश्ती का महान भक्त था। 1567 से 1579 तक प्रत्येक वर्ष वह ख्वाजा के दर्शनार्थ उपस्थित होता था। वहां उसने एक मसजिद का निर्माण भी कराया। अकबर के शासनकाल के महत्वपूर्ण इतिहासकारों द्वारा दिया गया विवरण विशेष महत्व रखता है इस कारण अबुल फज़ल का यह कथन अधिक उचित जान पड़ता है कि ख्वाजा का भारत आगमन 1192 ई० में तथा अजमेर आगमन 1195 में हुआ।
यह अवश्य है कि ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती से पूर्व कुछ चिश्ती सूफी भारत आ चुके थे किन्तु चिश्तिया सिलसिले को भारत में प्रचारित करने का श्रेय उन्हीं को है।
इस प्रकार ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का भारत आगमन पृथ्वीराज के शासनकाल में जान पड़ता है। उन्होंने अजमेर को अपना निवास स्थान बनाकर वहीं से विश्तिया सिलसिले का कार्य प्रारम्भ किया। मीर खुदं ने उन्हें "नायबे रसूलअल्लाह फिल हिन्द" अर्थात भारतवर्ष में मुहम्मद साहब का नायब कहा है।
जिस समय ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेर आये यह स्थान उस समय राजपूत साम्राज्य .का सुदृढ़ केन्द्र बना हुआ था तथा हिन्दू लोगों का विशेष धार्मिक स्थल था, दूर-दूर से हिन्दू लोग धार्मिक कर्मों के सम्पादन के लिए यहां एकत्र होते थे। शेख के अजमेर आगमन के समय वहां के धार्मिक महत्व पर मोहदिसे देहल्वी ने प्रकाश डाला है। अन्य धर्म के एक ऐसे धार्मिक एवं राजनीतिक केन्द्र में शेख मुईनुद्दीन चिश्ती के निवास करने का दृढ़ एवं अटल संकल्प इस बात पर प्रकाश डालता है कि वह अपने नियमों के प्रतिपादन में कितनी निष्ठा रखते थे और साथ ही उनके आत्मविश्वास और समर्पण की भावना का भी सूचक है। पृथ्वीराज के समय में अजमेर के अतिरिक्त ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने जिन स्थानों पर अपनी खानकाहें बनाईं वहां मुसलमानों की एक बड़ी संख्या निवास कर रही थी उदाहरण के लिए बदायूं,बनारस, कन्नौज, नागौर आदि के अतिरिक्त बिहार के कुछ नगरों का नाम लिया जा सकता है। इस कारण यह विचार भ्रामक है. कि भारतवर्ष में मुसलमानों की आबादी मुहम्मद गौरी की भारत विजय के बाद प्रारम्भ हुयी . लगभग दस वर्ष पूर्व बदायूं में मौलाना रजीउद्दीन हसन मशारकुल अन्वार का जन्म हुआ था।' जिनकी गणना भारत के प्रख्यात विद्वानों में होती है।
ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का भारत आगमन एक महत्वपूर्ण समाजी परिवर्तन का सूचक था। ग्यारहवीं और बारहवीं सदी में भारत की सामाजिक दुर्दशा अत्यन्त शोचनीय थी, प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से घृणा करता था, लड़ने मरने के लिए तैयार था, छूत-छात की कुरीति चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी तथा जीवन का सास्त सुख केवल ऊंची जाति के लोगों के लिए केन्द्रित होकर रह गया था।
ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने छूआछूत के इस भयावह माहौल में इस्लाम के तौहीद के दृष्टिकोण को लोगों के सामने रखा उन्होंने कहा (एकत्ववाद) के सिद्धान्त को मान लेने के बाद जात पात का समस्त बन्धनस्वयं समाप्त हो जायेगा। भारत में बसने वाले हजारों दुखी मनुष्यों के लिए यह सामाजिक सुधार और सन्तोषजनक परिवर्तन का संदेश था। अजमेर के खलीफा लोगों में दो सूफी बुजुर्ग विशेष उल्लेखनीय है। शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी और शेख हमीदुद्दीन सूफी सवाली नागौरी इसके अतिरिक्त बाबा फरीद गंज शकर, शेख निज़ामुद्दीन औलिया, चिराग देहलवी आदि ने चिश्ती सिलसिले को दूर दूर फैलाया। जिससे शनैः शैन:भारत वर्ष के कोने कोने में चिश्ती परम्परा की ख़ानक़ाहों की स्थापना हुई।
सुहरवर्दी सिलसिला :
सूफीवाद के सुहरवर्दी सिलसिले की नीव शेख शहाबुद्दीन सुहरवर्दी ने डाली थी। इनका जन्म सुहरवर्द में हुआ था। इस कारण सुहरवर्दी कहलाये किन्तु इनका मूल निवास स्थान बगदाद था और वहीं पर इनका मजार भी है। शेख शहाबुद्दीन सुहरवर्दी के मानने वाले सुहरवर्दी कहे जाते हैं। शेख शहाबुद्दीन की प्रमुख रचना "अवारिफ उल मआरिफ" है।
भारत में चिश्ती सिलसिले के बाद सुहरवर्दी सिलसिले का आगमन हुआ। शेख शहाबुद्दीन ने अपने शिष्यों को भारत भेजा जो उत्तर पश्चिम भाग में बस गए। शेख सुहरावर्दी कहा करते थे-
"भारत में मेरे खलीफा अधिक संख्या में है। प्रारम्भ में कुछ विशिष्ट खलीफा उदाहरणार्थ शेख रुकनुद्दीन, मुबारक गज़नवी, शेख मजुद्दीन हाजी, काजी हमीदुद्दीन नागौरी, भारत आए थे किन्तु सुहरवर्दी सिलसिले को भारत में फैलाने का श्रेय शेख बहादुद्दीन जकरिया मुल्तानी को है जिन्होंने मुल्तान-ओच्छ एवं अन्य स्थानों पर सुहरवर्दिया सिलसिले की प्रसिद्ध ख़ानक़ाहे स्थापित की।
"भारत में मेरे खलीफा अधिक संख्या में है। प्रारम्भ में कुछ विशिष्ट खलीफा उदाहरणार्थ शेख रुकनुद्दीन, मुबारक गज़नवी, शेख मजुद्दीन हाजी, काजी हमीदुद्दीन नागौरी, भारत आए थे किन्तु सुहरवर्दी सिलसिले को भारत में फैलाने का श्रेय शेख बहादुद्दीन जकरिया मुल्तानी को है जिन्होंने मुल्तान-ओच्छ एवं अन्य स्थानों पर सुहरवर्दिया सिलसिले की प्रसिद्ध ख़ानक़ाहे स्थापित की।
सुहरावर्दिया सिलसिले के प्रमुख सूफियों में शेख रुकनुद्दीन अबुल फतह मुल्तानी, सैयद जलालुद्दीन बुखारी, मखदूम जहांनिया, शेख समाउद्दीन, मौलाना जमाली इत्यादि के नाम विशेष उल्लेखनीय है।
गुजरात में सुहरार्दिया सिलसिला हजरत मखदूम जहांनिया के मुरीदों के माध्यम से पहुंचा तथा वहां शेख कुतुब आलम (1483 ई०) और शेख शाह आलम (1475 ई०) ने इसके प्रचार में मुख्य भूमिका निभाई।
बंगाल में सुहरवर्दी सिलसिला शेख जलालुद्दीन तबरेजी के द्वारा पहुंचा। सुहरवर्दिया सिलसिले का प्रभाव पंजाब और सिन्ध तक सीमित रहा किन्तु शेख बहाउद्दीन जकरिया, शेख रुकनुद्दीन मुल्तानी तथा मखदूम जहानिया की रूहानी ख्याति केवल भारतवर्ष तक ही सीमित नहीं रही बल्कि अन्य इस्लामी देशों में भी फैल गयी।
कादिरिया सिलसिला :
कादरी पद्धति के समर्थक अपना आदि पुरुष ईराक के अब्दुल कादिर जीलानी को (1077-1166) को मानते हैं। अब्दुल कादिर को हसनुल हुसैनी कहा जाता है। वंश परम्परा के आधार पर इनका परिवार हज़रत अली की ग्यारहवीं पीढ़ी में आता है। अब्दुल कादिर जीलानी (गीलानी) गीलान नगर के वासी थे इसी कारण इन्हें गीलानी अथवा इनके चमत्कार के कारण जीलानी दोनों नामों से सम्बोधित किया जाता है। इनका रंग गोरा, चेहरा सुन्दर एवं आवाज़ तेज थी। यह लम्बी दाढ़ी वाले सूफी थे।
15वीं शताब्दी में कादिरया सिलसिला भारत वर्ष में स्थापित हुआ। कादरिया सिलसिले के कुछ सूफियों का वर्णन दक्षिण भारत के वर्णन में विशेष उल्लेखनीय है। दक्षिण भारत में इस परम्परा के सबसे प्रसिद्ध कादरी, सूफी शाह नेमतुल्लाह कादरी थे। भारत में कादरी सिलसिले को लोकप्रिय बनाने का श्रेय शाह नेमतुल्लाह और मखदूम मुहम्मद को जाता है। मखदूम गीलानी 1517 ई० ने इस सिलसिले को दृढ़ता प्रदान की तथा अपनी सूफी कविताओं द्वारा शेख अब्दुल कादिर जीलानी के नाम और काम को भारतवर्ष की जनता तक पहुंचाया। उनके पुत्र मखदूम अब्दुल कादिर के सम्बन्ध में शेख अब्दुल हक मोहदिसे देहलवी का कथन है--
'अनेक गुनाहगार और नास्तिक उनके भव्य स्वरूप एवं चमत्कार से प्रभावित होकर सत्य मार्ग अपनाते तथा ईमान के मार्ग पर चलने लगते थे।
सोलहवीं एवं सत्रहवीं शताब्दी के कादिरया सिलसिले के सूफी पंजाब के विभिन्न तथा लाहौर, उच्छ, मुल्तान शेरगढ़ और देश के अन्य भागों में आस्था के केन्द्र थे। सैयद हामिद गंजबदस, शेख दाऊद किरमानी, शेख अब्दुल हक़ मोहदिसे देहलवी, शेख अबुल मआली कादरी, हजरत मियां मीर लाहोरी मुल्ला शाह इत्यादि की गणना कादिरया सिलसिले के प्रसिद्ध सूफी बुजुर्गों में होती है। इन सुफी लोगों ने मुगल शासन काल में कादिरया सिलसिले का अधिक प्रचार और प्रसार किया है। दारा शिकोह इसी सम्प्रदाय का थे ।
नक्शबन्दी सिलसिला :
नक्शबन्दी सिलसिले के जन्मदाता ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबन्दी है। नक्शबन्द का शाब्दिक अर्थ है कशीदाकार या वस्त्रों पर चित्रकारी करने वाला। ख्वाजा बहाउद्दीन अपने पिता के साथ कामखाब के कपड़े बुनते थे। यह शब्द बहाउद्दीन के साथ इसलिए जुड़ा प्रतीत होता है क्योंकि सम्भवतः इनके पूर्वजों को हो व्यवसाय रहा होगा। यह हनफी सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे। ख्वाजा बहाउद्दीन समा (कव्वाली गायन की बैठक) के प्रति अनुदार भावना
रखते।अकबर के शासनकाल में ख्वाजा बाकी बिल्लाह 1603 ने भारतवर्ष में नक्शबन्दी सिलसिले की स्थापना की। वैसे तो ख्वाजा बाकी बिल्लाह से पूर्व भारत में नक्शबन्दी सिलसिले के कतिपय सूफी बुजुर्ग आ चुके थे किन्तु इस सिलसिले को भारतवर्ष में वास्तविक रूप में स्थापित करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। उनके मुरीदों में शेख अहमद सरहिन्दी ने सिलसिले के प्रचार एवं प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जहांगीर के अनुसार ख्वाजा बाकी बिल्लाह के मुरीद देश के कोने कोने में फैल गए थे।
सूफी बुजुर्ग मुजद्दिदीने आन्दोलन में जान डाल दी। इन्होंने शरीअत और सुन्नत पर जोर देकर उन बातो का खण्डन और बहिष्कार किया जो इस्लाम के सिद्धान्तों से भिन्न थीं।
उनके सिलसिले के प्रसिद्ध सूफियों यथा ख्वाजा मुहम्मद मासूम, ख्वाजा सैफुद्दीन, शाह वली उल्लाह, मिर्जा मज़हर जानजाना, शाह गुलाम अली आदि ने सिलसिले के प्रचार एवं प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विशेषकर शाह वली उल्लाह देहलवी और उनके विचारों में आस्था रखने वाले सूफियों का सम्बन्ध मुजददी सिलसिले से अधिक गहरा था।
इलाहाबाद के सूफी दायरों पर चिश्तिया, नक्शबन्दिया, सोहरवर्दिया एवं कादिरया सिलसिलों का प्रभाव दिखाई देता है।
इलाहाबाद में सूफी दायरों की संख्या अभी तक केवल बारह बताई जाती थी किन्तु कुछ किताबों के अनुसार इसकी संख्या सत्रह है। इनमें से कुछ दायरे अपनी भव्य इमारतों के साथ आज भी मौजूद है किन्तु अधिकांश दायरे अपना अस्तित्व खो चुके है। इनके जीर्ण-शीर्ण भवन एवं कुछ कब्रे ही उनके अवशेष के रूप में शहर के विभिन्न मुहल्लों में विद्यमान है।
1.दायरा शाह मुहिबउल्लाह इलाहाबादी
2. दायरा शाह रफी उज्जमा
3. दायरा शाह अजमल
4 दायरा शाह अब्दुल जलील
5. दायरा शाह मुहम्मद अलीम
6. दायरा शाह मुनव्वर अली
7. दायरा शाह गुलाम अली अथवा दायरा मुल्ला मुहम्मदी शाह
8. दायरा शाह सिकन्दर अली
9. दायरा शाह जैनुद्दीन अथवा जैनुल आब्दीन
10. दायरा सय्यद जहां अथवा दायरा शाह मुस्तफा
11 दायरा शाह महम्मद शफी
12. दायरा शाह जान मुहम्मद
कुछ अन्य दायरे :
1. दायरा शाह तैमूर
2. दायरा शाह बदीर
3 दायरा दीवान सय्यद शाह मुहम्मद अहसन
4 दायरा शाह वहाजुद्दीन
5 दायरा शाह नूर अली
इलाहाबाद के निकटवर्ती क्षेत्र के दायरे अथवा ख़ानक़ाह
1. ख्वाजा कड़क शाह ( कड़ा कौशाम्बी )
2. मखदूम शेख सय्यद तकीउद्दीन (झूंसी )
3. सय्यद मुहम्मद हक्कानी (सय्यद सरावा)
4. सय्यद बासित अलीशाह कलन्दर (दमगढ़ा तहसील हंडिया)
5. शाह कमाल (जलालपुर तहसील हंडिया)
6. मौलाना सिकन्दर अली (ग्राम भेलाई का पूरा तहसील फूलपुर)
7. सय्यद अली मुर्तजा (झूंसी )
8. मुहम्मद मदारी (ग्राम संगरौर तहसील सोराव)
9. शेख मुहम्मद इसमाईल कुरैशी अल हाश्मी (बमरौली)
10. अमीर अली शाह (सय्यद सरावा)
11. दीवान गदा अली शाह (अकबरपुर कड़ा)
12. सय्यद कुतुबुद्दीन मदनी ( कड़ा)
13. मौलाना मुहम्मद कमालुद्दीन ( कड़ा)
14. मौलाना ख्वाजगी (कड़ा)
15. अमीर कबीर सय्यद कुतबददीन मदनी ( कड़ा)
संदर्भ
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- मौलवी अब्दुल माजिद दरियाबादी--तसव्वुफ और इस्लाम पृष्ठ 89
- के० एस० लाल--अरली मुस्लिम्स इन इण्डिया फूठ 124
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- चिटनिस के० एन०--सोशियो इकोनामिक हिस्ट्री आफ मिडिवियल इण्डिया भाग प्रथम पृष्ठ 150
- निज़ामी खलीक अहमद--तारीखे मशाए खोचिश्त भाग प्रथम पृष्ठ 181
- मोलवी मुफ्ती सैयद नजरुल हक कादरी गौसुल आज़म पृष्ठ 32
- नोट : अब्दुल कादिर गीलानी को उनकी करामात के कारण जीलानी की संज्ञा से सम्बोधित किया गया है।
- डा० सलाम सन्दील्वी--तसव्वुफ और असगर गोन्डवी पृष्ठ 326
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- चौधरी एस० सी० राय--सोशल कल्चरल एण्ड इकोनामिक हिस्ट्री आफ इण्डिया पृष्ठ 113
- डा० सलाम सन्डीलवी--तसव्वुफ़ और असगर गोन्डवी पृष्ठ 341.342
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